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06 जैव प्रक्रम


जैव प्रक्रम :- शरीर की वे सभी क्रियाएँ जो शरीर को टूट - फुट से बचाती हैं और सम्मिलित रूप से अनुरक्षण का कार्य करती हैं जैव प्रक्रम कहलाती हैं  । सम्मिलित रूप से वे सभी प्रक्रम जो जीवो के जीने के लिए आवश्यक है, उनके अनुरक्षण के लिए आवश्यक है, वे सभी प्रक्रम जैव प्रक्रम में आते हैं, जैसे  उत्सर्जन,पोषण,वहन इत्यादि पोषण इस प्रकरण में जीवो द्वारा आवश्यक पोषक तत्व प्रकृति से लिए जाते हैं। जिसका जीव अपने शरीर में या शरीर के बाहर पाचन करता है। जिससे उस जीव को जीने के लिए ऊर्जा मिलती है। उत्सर्जन: इस प्रक्रम में जीवो द्वारा अपने शरीर से उपापचय क्रिया के दौरान बने विषैले पदार्थों का अपने शरीर से बाहर निकाला जाता है उत्सर्जन कहलाता है।

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जैव प्रक्रम में सम्मिलित प्रक्रियाएँ निम्नलिखित हैं :

  • पोषण 

  • श्वसन 

  • वहन 

  • उत्सर्जन

  1. पोषण :- सभी जीवों को जीवित रहने के लिए और विभिन्न कार्य करने के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है  । ये ऊर्जा जीवों को पोषण के प्रक्रम से प्राप्त होता है  । इस प्रक्रम में चयापचय नाम की एक जैव रासायनिक क्रिया होती है जो कोशिकाओं में संपन्न होती है और इसकों संपन्न होने के लिए ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है जिसे जीव अपने बाहरी पर्यावरण से प्राप्त करता है  । इस प्रक्रम में ऑक्सीजन का उपयोग एवं इससे उत्पन्न कार्बन-डाइऑक्साइड (CO2) का निष्कासित होना

  2. श्वसन :- कहलाता है  । कुछ एक कोशिकीय जीवों में ऑक्सीजन और कार्बन-डाइऑक्साइड के वहन के लिए विशेष अंगों की आवश्यकता नहीं होती है क्योंकि इनकी कोशिकाएँ सीधे-तौर पर पर्यावरण के संपर्क में रहते है  । परन्तु बहुकोशिकीय जीवों में गैसों के आदान-प्रदान के लिए श्वसन तंत्र होता है और इनके कोशिकाओं तक पहुँचाने के लिए

  3. वहन :- वहन तंत्र होता है जिसे परिसंचरण तंत्र कहते है  । जब रासायनिक अभिक्रियाओं में कार्बन स्रोत तथा ऑक्सीजन का उपयोग ऊर्जा प्राप्ति केलिए होता है, तब ऐसे उत्पाद भी बनते हैं जो शरीर की कोशिकाओं के लिए न केवल अनुपयोगी होते हैं बल्कि वे हानिकारक भी हो सकते हैं। इन अपशिष्ट उत्पादों को शरीर से बाहर निकालना अति आवश्यक होता है।

  4. उत्सर्जन :- कहते हैं। चूँकि ये सभी प्रक्रम सम्मिलित रूप से शरीर के अनुरक्षण का कार्य करती है इसलिए इन्हें जैव प्रक्रम कहते है  ।

जैव रासायनिक प्रक्रम :-

इन सभी प्रक्रियाओं में जीव बाहर से अर्थात बाह्य ऊर्जा स्रोत से उर्जा प्राप्त करता है और शरीर के अंदर ऊर्जा स्रोत से प्राप्त जटिल पदार्थों का विघटन या निर्माण होता है  । जिससे शरीर के अनुरक्षण तथा वृद्धि के लिए आवश्यक अणुओं का निर्माण होता है  । इसके लिए शरीर में रासायनिक क्रियाओं की एक श्रृंखला संपन्न होती है जिसे जैव रासायनिक प्रक्रम कहते हैं  ।

पोषण की प्रक्रिया

बाह्य ऊर्जा स्रोत से ऊर्जा ग्रहण करना (जटिल पदार्थ)

ऊर्जा स्रोत से प्राप्त जटिल पदार्थों का विघटन

जैव रासायनिक प्रक्रम से सरल उपयोगी अणुओं में परिवर्तन

ऊर्जा के रूप में उपभोग

पुन: विभिन्न जैव रासायनिक प्रक्रम का होना

नए जटिल अणुओं का निर्माण (प्रोटीन संश्लेषण की क्रिया)

शरीर की वृद्धि एवं अनुरक्षण

अणुओं के विघटन की समान्य रासायनिक युक्तियाँ :- शरीर में अणुओं के विघटन की क्रिया एक रासायनिक युक्ति के द्वारा होती है जिसे चयापचय कहते हैं

उपापचयी क्रियाएँ जैवरासायनिक क्रियाएँ हैं जो सभी सजीवों में जीवन को बनाये रखने के लिए होती है  ।

उपापचयी क्रियाएँ दो प्रकार की होती हैं  ।

  1. उपचयन :- यह रचनात्मक रासायनिक प्रतिक्रियाओं का समूह होता है जिसमें अपचय की क्रिया द्वारा उत्पन्न ऊर्जा का उपयोग सरल अणुओं से जटिल अणुओं के निर्माण में होता है  । इस क्रिया द्वारा सभी आवश्यक पोषक तत्व शरीर के अन्य भागों तक आवश्यकतानुसार पहुँचाएँ जाते है जिससें नए कोशिकाओं या उत्तकों का निर्माण होता है  ।

  2. अपचयन :- इस प्रक्रिया में जटिल कार्बनिक पदार्थों का विघटन होकर सरल अणुओं का निर्माण होता है तथा कोशिकीय श्वसन के दौरान उर्जा का निर्माण होता है  । जैव प्रक्रम के अंतर्गत निम्नलिखित प्रक्रम है जो सम्मिलित रूप से अनुरक्षण का कार्य करते हैं:

पोषण, श्वसन, वहन, उत्सर्जन

  1. पोषण :- सजीवों में होने वाली वह प्रक्रिया जिसमें कोई जीवधारी जैव रासायनिक प्रक्रम के द्वारा जटिल पदार्थों को सरल पदार्थों में परिवर्तित कर ऊर्जा प्राप्त करता है, और उसका उपयोग करता है, पोषण कहलाता है  ।

जैव रासायनिक प्रक्रम का उदाहरण :

  1. पौधों में प्रकाश संश्लेषण की क्रिया 

  2. जंतुओं में पाचन क्रिया

पौधों में भोजन ग्रहण करने की प्रक्रिया को प्रकाश संश्लेषण कहते है  । इस प्रक्रिया में जीव अकार्बनिक स्रोतों से कार्बन डाइऑक्साइड तथा जल के रूप में सरल पदार्थ प्राप्त करते हैं ऐसे जीव स्वपोषी कहलाते है  । उदाहरण : हरे पौधे तथा कुछ जीवाणु इत्यादि  ।

एंजाइम :- जटिल पदार्थों के सरल पदार्थों में खंडित करने के लिए जीव कुछ जैव उत्प्रेरक का उपयोग करते हैं जिन्हें एंजाइम कहते हैं  । 

पोषण के प्रकार :- 

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पोषण दो प्रकार के होते है। :- 

  • स्वपोषी पोषण

  • विषमपोषी पोषण

  1. स्वपोषी पोषण :- स्वपोषी पोषण एक ऐसा पोषण है जिसमें जीवधारी जैविक पदार्थ (खाद्य) का संश्लेषण अकार्बनिक स्रोतो से स्वयं करते हैं। इस प्रकार के पोषण हरे पादप एवं स्वपोषी जीवाणु करते है।

उदाहरण : हरे पौधें और प्रकाश संश्लेषण करने वाले कुछ जीवाणु  । 

प्रकाश संश्लेसन : हरे पौधें जल और कार्बन डाइऑक्साइड जैसे कच्चे पदार्थों का उपयोग सूर्य का प्रकाश और क्लोरोफिल की उपस्थिति में भोजन

  1. विषमपोषी पोषण :- पोषण की वह विधि जिसमें जीव अपना भोजन अन्य स्रोतों से प्राप्त करता है  । इसमें जीव अपना भोजन पादप स्रोत से प्राप्त करता है अथवा प्राणी स्रोतों से करता है  । उदाहरण : कवक, फंगस, मनुष्य, सभी जानवर, इत्यादि  ।  

विषमपोषी पोषण तीन प्रकार के होते है। :-

  1. मृतपोषित पोषण :- पोषण की वह विधि जिसमें जीवधारी अपना पोषण मृत एवं क्षय (सडे - गले) हो रहे जैव पदार्थो से करते है। मृत जीवी पोषण कहलाता है   । इस प्रकार के पोषण कवक एवं अधिकतर जीवाणुओ में होता हैं।

  2. परजीवी पोषण :- परजीवी पोषण पोषण की वह विधि है जिसमें जीव किसी अन्य जीव से अपना भोजन एवं आवास लेते है और उन्ही के पोषण स्रोत का अवशोषण करते हैं परजीवी पोषण कहलाता है  । 

इस प्रक्रिया में दो प्रकार के जीवों की भागीदारी होती है  ।

  1. पोषी :- जिस जीव से खाद्य का अवशोषण परजीवी करते है उन्हें पोषी कहते हैं।

  2. परजीवी :- परजीवी वह जीव है जो पोषियों के शरीर में रहकर उनके ही भोजन और आवास का अवशोषण करते हैं   । जैसे- मच्छरों में पाया जाने वाला प्लाजमोडियम, मनुष्य के आँत में पाया जाने वाला फीता कृमि, गोल कृमि, जू आदि जबकि पौधों में अमरबेल

  3. प्राणीसमभोज अथवा पूर्णजांतविक पोषण :- पोषण की बह विधि जिसमें जीव ऊर्जा की प्राप्ती पादप एवं प्राणी स्रोतो से प्राप्त जैव पदार्थो के अंर्तग्रहण एवं पाचन द्वारा की जाती हैं। अर्थात वह भोजन को लेता है पचाता है और फिर बाहर निकालता है  । जैसे - मनुष्य, अमीबा एवं सभी जानवर  ।

अमीबा में पोषण :- अमीबा भी मनुष्य की तरह ही पोषण प्राप्त करता है और शरीर के अन्दर पाचन करता है  ।

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मनुष्य में पोषण :- मनुष्य में पोषण प्राणीसमभोज विधि के द्वारा होता है जिसके निम्न प्रक्रिया है  ।

  1. अंतर्ग्रहण :- भोजन को मुँह में लेना  ।

  2. पाचन :- भोजन का पाचन करना  ।

  3. अवशोषण :- पचे हुए भोजन का आवश्यक पोषक तत्वों में रूपांतरण और उनका अवशोषण होना  ।

  4. स्वांगीकरण :- अवशोषण से प्राप्त आवश्यक तत्व का कोशिका तक पहुँचना और उनका कोशिकीय श्वसन के लिए उपभोग होना  ।

  5. बहि:क्षेपण :- आवश्यक तत्वों के अवशोषण के पश्चात् शेष बचे अपशिष्ट का शरीर से बाहर निकलना  ।

मनुष्य में पाचन क्रिया :- 

  1. मुँह → भोजन का अंतर्ग्रहण

   दाँत → भोजन का चबाना 

   जिह्वा → भोजन को लार के साथ पूरी तरह मिलाना 

लाला ग्रंथि → लाला ग्रंथि स्रावित लाला रस या लार का लार एमिलेस एंजाइम की उपस्थिति में स्टार्च को माल्टोस शर्करा में परिवर्तित करना  ।

  1. भोजन का ग्रसिका से होकर जाना → हमारे मुँह से अमाशय तक एक भोजन नली होती है जिसे ग्रसिका कहते है  । इसमें होने वाली क्रमाकुंचन गति से भोजन आमाशय तक पहुँचता है

  2. अमाशय (Stomach) → मनुष्य का अमाशय भी एक ग्रंथि है जो जठर रस/ अमाशयिक रस का स्राव करता है, यह जठर रस पेप्सिन जैसे पाचक रस, हाइड्रोक्लोरिक अम्ल और श्लेषमा आदि का मिश्रण होता है  ।

अमाशय में होने वाली क्रिया :-

जठर रस

↓

हाइड्रोक्लोरिक अम्ल द्वारा अम्लीय माध्यम प्रदान करना

↓

भोजन को छोटे-छोटे टुकड़ों में तोडना

↓

पेप्सिन द्वारा प्रोटीन का पाचन

↓

श्लेष्मा द्वारा अमाशय के आन्तरिक स्तर का अम्ल से रक्षा करना

  1. क्षुद्रांत्र → क्षुद्रांत्र आहार नाल का सबसे बड़ा भाग है  ।

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क्षुद्रांत्र तीन भागों से मिलकर बना है  ।

  1. ड्यूडीनम :- यह छोटी आँत का वह भाग है जो आमाशय से जुड़ा रहता है और आगे जाकर यह जिजुनम से जुड़ता है  । आहार नल के इसी भाग में यकृत (liver) से निकली पित की नली कहते है ड्यूडीनम से जुड़ता है और साथ-ही साथ इसी भाग में अग्नाशय भी जुड़ता है  । 

क्षुद्रांत्र का यह भाग यकृत तथा अग्नाशय से स्रावित होने वाले स्रावण प्राप्त करती है

  1. यकृत :- यकृत शरीर की सबसे बड़ी ग्रंथि है, यकृत से पित्तरस स्रावित होता है जिसमें पित्त लवण होता है और यह आहार नाल के इस भाग में भोजन के साथ मिलकर वसा का पाचन करता है  ।

पित रस का कार्य :-

  1. आमाशय से आने वाला भोजन अम्लीय है और अग्नाशयिक एंजाइमों की क्रिया के लिए यकृत से स्रावित पित्तरस उसे क्षारीय बनाता है  । 

  2. वसा की बड़ी गोलिकाओं को इमल्सिकरण के द्वारा पित रस छोटी वसा गोलिकाओं में परिवर्तित कर देता है  ।

  1. अग्नाशय :- अग्नाशय भी एक ग्रंथि है, जिसमें दो भाग होता है  ।

  1. अंत:स्रावी ग्रंथि भाग :- अग्नाशय का अंत:स्रावी भाग इन्सुलिन नामक हॉर्मोन स्रावित करता है  ।

  2. बाह्यस्रावी ग्रंथि भाग :- अग्नाशय का बाह्य-स्रावी भाग एंजाइम स्रावित करता है जो एक नलिका के द्वारा शुद्रांत्र के इस भाग में भोजन के साथ मिलकर विभिन्न पोषक तत्वों का पाचन करता है   । अग्नाशय से निकलने वाले एंजाइम अग्नाशयिक रस बनाते हैं  ।

ये एंजाइम निम्न हैं :-

  1. ऐमिलेस एंजाइम :- यह स्टार्च का पाचन कर ग्लूकोस में परिवर्तित करता है

  2. ट्रिप्सिन एंजाइम :- यह प्रोटीन का पाचन कर पेप्टोंस में करता है  ।

  3. लाइपेज एंजाइम :- वसा का पाचन वसा अम्ल में करता है  ।

जिजुनम :- ड्यूडीनम और इलियम के बीच के भाग को जुजिनम कहते हैं और यह अमाशय और ड्यूडीनम द्वारा पाचित भोजन के सूक्ष्म कणों का पाचन करता है  ।

इलियम :- छोटी आँत का यह सबसे लम्बा भाग होता है और भोजन का अधिकांश भाग इसी भाग में पाचित होता है  । इसका अंतिम सिरा बृहदांत्र से जुड़ता है  । बृहदांत्र को भी कहते है  ।

दीर्घरोम :- मनुष्य के छोटी आंत्र (क्षुद्रांत्र) के आंतरिक स्तर पर अनेक अँगुली जैसे प्रवर्धन पाए जाते हैं जिन्हें दीर्घरोम कहते है

दीर्धरोम का कार्य :-

  1. ये अवशोषण के लिए सतही क्षेत्रफल बढा देते है। 

  2. ये जल तथा भोजन को अवशोषित कर कोशिकाओं तक पहुँचाते है।

श्वसन :- (क्रमाकुंचन गति) आहारनाल की वह गति जिससे भोजन आहारनाल के एक भाग से दुसरे भाग तक पहुँचता है क्रमाकुंचन गति कहलाता है  ।

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भोजन प्रक्रम के दौरान हम जो खाद्य सामग्री ग्रहण करते है, इन खाद्य पदार्थों से प्राप्त ऊर्जा का उपयोग कोशिकाओं में होता है  । जीव इन ऊर्जा का उपयोग विभिन्न जैव प्रक्रमों में उपयोग करता है  ।

  1.  कोशिकीय श्वसन :- ऊर्जा उत्पादन के लिए कोशिकाओं में भोजन के बिखंडन को कोशिकीय श्वसन कहते है  ।

  2.  श्वास लेना :- श्वसन की यह क्रिया फेंफडे में होता होता है  । जिसमें जीव ऑक्सीजन लेता है और कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ता है  ।

विभिन्न जैव प्रक्रमों के लिए ऊर्जा :- कोशिकाएं विभिन जैव प्रक्रमों के लिए ऊर्जा कोशिकीय श्वसन के दौरान भिन्न - भिन्न जीवों में भिन्न विधियों के द्वारा प्राप्त करती हैं

  1. ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में :- कुछ जीव जैसे यीस्ट किण्वन प्रक्रिया के समय ऊर्जा प्राप्त करने के लिए करता है  ।

इसका प्रवाह इस प्रकार है :-

6 कार्बन वाला ग्लूकोज ⇒ तीन कार्बन अणु वाला पायरुवेट में बिखंडित होता है 

⇒ इथेनॉल, कार्बन डाइऑक्साइड और ऊर्जा मुक्त होता है  । 

चूँकि यह प्रक्रिया ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में होता है इसलिए इसे अवायवीय श्वसन कहते हैं  ।

  1. ऑक्सीजन का आभाव में :- अत्यधिक व्यायाम के दौरान अथवा अत्यधिक शारीरिक परिश्रम के दौरान हमारे शरीर की पेशियों में ऑक्सीजन का आभाव की स्थिति में होता है  । जब शरीर में ऑक्सीजन की माँग की अपेक्षा पूर्ति कम होती है  ।

इसका प्रवाह निम्न प्रकार होता है :-

6 कार्बन वाला ग्लूकोज ⇒ तीन कार्बन अणु वाला पायरुवेट में बिखंडित होता है ⇒ लैक्टिक अम्ल और ऊर्जा मुक्त होता है  ।

  1. ऑक्सीजन की उपस्थिति में :- यह प्रक्रिया हमारी कोशिकाओं के माइटोकोंड्रिया में ऑक्सीजन की उपस्थिति में होता है  ।

इसका प्रवाह निम्न प्रकार से होता है :-

6 कार्बन वाला ग्लूकोज ⇒ तीन कार्बन अणु वाला पायरुवेट में बिखंडित होता है 

⇒ कार्बन डाइऑक्साइड, जल और अत्यधिक मात्रा में ऊर्जा मोचित होता है  । 

यह प्रक्रिया चूँकि ऑक्सीजन की उपस्थिति में होता है इसलिए इसे वायवीय श्वसन कहते हैं  ।

विभिन्न पथों द्वारा ग्लूकोज का विखंडन का प्रवाह आरेख :-

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वायवीय श्वसन :- ग्लूकोज विखंडन की वह प्रक्रिया जो ऑक्सीजन की उपस्थिति में होता है उसे वायवीय श्वसन कहते हैं  ।

अवायवीय श्वसन :- ग्लूकोज विखंडन की वह प्रक्रिया जो ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में होता है उसे अवायवीय श्वसन कहते हैं  ।

वायवीय और अवायवीय श्वसन में अंतर :

अवायवीय श्वसन :- 

  1. इसमें 2 कार्बन अणु वाला ATP ऊर्जा उत्पन्न होती है।

  2. यह प्रक्रम कोशिका द्रव्य में होता है। 

  3. यह निम्नवर्गीय जीव जैसे यीस्ट कोशोकाओं में होता है  । 

  4. इस प्रकार की श्वसन क्रिया ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में होती है

  5. इसमें ऊर्जा के साथ एथेनोल और कार्बन डाइऑक्साइड मुक्त होता है

वायविय श्वसन :-

  1. इसमें 3 कार्बन अणु वाला ATP ऊर्जा उत्पन्न होती है। 

  2. यह प्रक्रम माइटोकॉड्रिया में होता है। 

  3. ये सभी उच्चवर्गीय जीवों में पाया जाता हैं।

  4. इस प्रकार की श्वसन क्रिया ऑक्सीजन की उपस्थिति में होती हैं।

  5. इसमें ऊर्जा के साथ कार्बन डाइऑक्साइड और जल मुक्त होता है  ।

ऊर्जा का उपभोग :- कोशिकीय श्वसन द्वारा मोचित ऊर्जा तत्काल ही ए.टी.पी. (ATP) नामक अणु के संश्लेषण में प्रयुक्त हो जाती है जो कोशिका की अन्य क्रियाओं के लिए ईंधन की तरह प्रयुक्त होता है।

  1. ए.टी.पी. के विखंडन से एक निश्चित मात्रा में ऊर्जा मोचित होती है जो कोशिका के अंदर होने वाली आंतरोष्मि क्रियाओं का परिचालन करती है।

  2. इस ऊर्जा का उपयोग शरीर विभिन्न जटिल अणुओं के निर्माण के लिए भी करता है जिससे प्रोटीन का संश्लेषण भी होता है  । यह प्रोटीन का संश्लेषण शरीर में नए कोशिकाओं का निर्माण करता है  ।

  3. ए.टी.पी. का उपयोग पेशियों के सिकूड़ने, तंत्रिका आवेग का संचरण आदि अनेक क्रियाओं के लिए भी होता है।

वायवीय जीवों में वायवीय श्वसन के लिए आवश्यक तत्व :-

  1. पर्याप्त मात्रा में ऑक्सीजन ग्रहण करें  ।

  2. श्वसन कोशिकाएं वायु के संपर्क में हो  ।

श्वसन क्रिया और श्वास लेने में अंतर :-

श्वसन क्रिया :

1. यह एक जटिल जैव रासायनिक प्रक्रिया है जिसमें पाचित खाद्यो का ऑक्सिकरण होता है।

2. यह प्रक्रिया माइटोकॉड्रिया में होती हे। 

3. इस प्रक्रिया से ऊर्जा का निर्माण होता है  ।

श्वास लेना :

  1. ऑक्सिजन लेने तथा कार्बन डाइऑक्साइड छोडने की प्रक्रिया को श्वास लेना कहते है।

  2. यह प्रक्रिया फेफडे में होती है।

  3. इससे ऊर्जा का निर्माण नहीं होता है  । यह रक्त को ऑक्सीजन युक्त करता है और कार्बन डाइऑक्साइड मुक्त करता है  ।

विसरण :- कोशिकाओं की झिल्लियों द्वारा कुछ चुने हुए गैसों का आदान-प्रदान होता है इसी प्रक्रिया को विसरण कहते है  ।

पौधों में विसरण की दिशा :- विसरण की दिशा पर्यावरणीय अवस्थाओं तथा पौधे की आवश्यकता पर निर्भर करती है।

  1. पौधे रात्रि में श्वसन करते हैं :- जब कोई प्रकाशसंश्लेषण की क्रिया नहीं हो रही है, कार्बन डाइऑक्साइड का निष्कासन करते है और ऑक्सीजन ग्रहण करते हैं  ।

  2. पौधे दिन में प्रकाशसंश्लेषण की क्रिया करते है :- श्वसन के दौरान निकली CO2 प्रकाशसंश्लेषण में प्रयुक्त हो जाती है अतः कोई CO2 नहीं निकलती है। इस समय ऑक्सीजन का निकलना मुख्य घटना है।

कठिन व्यायाम के समय श्वसन दर बढ़ जाती है :- कठिन व्यायाम के समय श्वास की दर अधिक हो जाती है क्योंकि कठिन व्यायाम से कोशिकाओं में श्वसन क्रिया की दर बढ जाती है जिससे अधिक मात्रा में उर्जा का खपत होता है। ऑक्सिीजन की माँग कोशिकाओं में बढ जाती है और अधिक मात्रा में CO2 निकलने लगते है जिससे श्वास की दर अधिक हो जाती है।

मनुष्यों में वहन :- 

रक्त नलिकाएँ :- हमारे शरीर में परिवहन के कार्य को संपन्न करने के लिए विभिन्न प्रकार की रक्त नलिकाएँ होती हैं  । ये तीन प्रकार की होती है

  1. धमनी :- वे रक्त वाहिकाएँ जो रक्त को ह्रदय से शरीर के अन्य भागों तक ले जाती है धमनी कहलाती है  । जैसे - महाधमनी, फुफ्फुस धमनी आदि  ।

  2. शिरा :- वें रक्त वाहिकाएँ जो रक्त को शरीर के अन्य अंगों से ह्रदय तक लेकर आती हैं  । शिराएँ कहलाती हैं  । जैसे महाशिरा, फुफ्फुस शिरा आदि  ।

  3. कोशिकाएँ :- वे रक्त नलिकाएँ जो धमनियों और शिराओं को आपस में जोड़ती है केशिकाएँ कहलाती है  ।

धमनी और शिरा में अंतर :- 

धमनी

शिरा

  1. ह्रदय से रक्त को शरीर के अन्य भागों तक पहुँचाने वाले रक्त नलिका को धमनी कहते हैं  ।

  2. शिरा की तुलना में धमनी की मोटाई पतली होती है  ।

  3. इसकी आन्तरिक गोलाई कम होती है

  4. इसमें रक्तदाब ऊँच होता है  ।

  5. सामान्यत: इसमें ऑक्सीजन युक्त रक्त प्रवाहित होता है  ।

  1. शरीर के अन्य भागों से रक्त को ह्रदय तक लाने वाले रक्त नलिका को शिरा कहते है  ।

  2. शिराओं की मोटाई अधिक होती है

  3. इसकी आतंरिक गोलाई अधिक होती है  ।

  4. इसमें रक्त दाब कम होता है  ।

  5. सामान्यत: शिराओं में CO2 रक्त प्रवाहित होता है  ।

मानव ह्रदय :- ह्रदय एक पेशीय अंग है जिसकी संरचना हमारी मुट्ठी के आकार जैसी होती है  । यह ऑक्सीजन युक्त रक्त और कार्बन डाइऑक्साइड युक्त रक्त प्रवाह के दौरान एक दुसरे से मिलने से रोकने के लिए यह कई कोष्ठकों में बँटा हुआ होता है  । जिनका कार्य शरीर  के विभिन्न भागों के रक्त को इक्कठा करना और फिर पम्प करके शरीर के अन्य भागों तक पहुँचाना होता है  । 

3D human heart - TurboSquid 1737445

ह्रदय में चार कोष्ठ होते है, दो बाई ओर और दो दाई ओर जिनका नाम और कार्य निम्नलिखित हैं :-

  1.  दायाँ आलिन्द :- यह शरीर के उपरी और निचले भाग से रक्त को इक्कठा करता है और पम्प द्वारा दायाँ निलय को भेज देता है  ।

  2.  दायाँ निलय :- यह रक्त को फुफ्फुस धमनी के द्वारा फुफ्फुस/ फेफड़ें को ऑक्सीकृत होने के भेजता है  ।

  3.  बायाँ आलिन्द :- यहाँ रक्त को फुफ्फुस से फुफ्फुस शिरा के द्वारा लाया जाता है और यह रक्त को इक्कठा कर बायाँ निलय में भेज देता है  ।

  4.  बायाँ निलय :- बायाँ निलय बायाँ आलिन्द से भेजे गए रक्त को महाधमनी के द्वारा पुरे शारीर तक संचारित कर देता है  ।

मानव ह्रदय का कार्य-विधि :- ह्रदय के कार्य - विधि के निम्नलिखित चरण है:

  1. दायाँ आलिन्द में विऑक्सीजनित रुधिर शरीर से आता है तो यह संकुचित होता है, इसके निचे वाला संगत कोष्ठ दायाँ निलय फ़ैल जाता है और रुधिर को दाएँ निलय में स्थान्तरित कर देता है यह कोष्ठ रुधिर को ऑक्सीजनीकरण के लिए फुफ्फुस के लिए पम्प कर देता है  । जब यह पम्प करता है तो इसके वाल्व रुधिर के उलटी दिशा में प्रवाह को रोकता है  ।

  2. पुन: जब रुधिर ऑक्सीजनीकृत होकर फुफ्फुस से ह्रदय में वापस आता है तो यह रुधिर बायाँ आलिन्द में प्रवेश करता है जहाँ इसे इकत्रित करते समय बायाँ आलिन्द शिथिल रहता है  । जब अगला कोष्ठ, बायाँ निलय, फैलता है तब यह संकुचित होता है जिससे रुधिर इसमें स्थानांतरित होता है। अपनी बारी पर जब पेशीय बायाँ निलय संकुचित होता है, तब रुधिर शरीर में पंपित हो जाता है।

ह्रदय के वाल्व का कार्य :- वाल्व रुधिर के उलटी दिशा में प्रवाह को रोकता है  ।

ह्रदय का विभिन्न कोष्ठकों में बँटवारा :- हृदय का दायाँ व बायाँ बँटवारा ऑक्सीजनित तथा विऑक्सीजनित रुधिर को मिलने से रोकने में लाभदायक होता है। इस तरह का बँटवारा शरीर को उच्च दक्षतापूर्ण ऑक्सीजन की पूर्ति कराता है।

अन्य जंतुओं में कोष्ठकों का उपयोग :-

पक्षी और स्तनधरी सरीखे जंतुओं को जिन्हें उच्च ऊर्जा की आवश्यकता है, यह बहुत लाभदायक है क्योंकि इन्हें अपने शरीर का तापक्रम बनाए रखने के लिए निरंतर ऊर्जा की आवश्यकता होती है। उन जंतुओं में जिन्हें इस कार्य के लिए ऊर्जा का उपयोग नहीं करना होता है, शरीर का तापक्रम पर्यावरण के तापक्रम पर निर्भर होता है। जल स्थल चर या बहुत से सरीसृप जैसे जंतुओं में तीन कोष्ठीय हृदय होता है और ये ऑक्सीजनित तथा विऑक्सीजनित रुधिर को कुछ सीमा तक मिलना भी सहन कर लेते हैं। दूसरी ओर मछली के हृदय में केवल दो कोष्ठ होते हैं। यहाँ से रुधिर क्लोम में भेजा जाता है जहाँ यह ऑक्सीजनित होता है और सीधा शरीर में भेज दिया जाता है। इस तरह मछलियों के शरीर में एक चक्र में केवल एक बार ही रुधिर हृदय में जाता है।

दोहरा परिसंचरण :- हमारा ह्रदय रक्त को ह्रदय से बाहर भेजने के लिए प्रत्येक चक्र में दो बार पम्प करता है और रक्त दो बार ह्रदय में आता है  । इसे ही दोहरा परिसंचरण कहते है  ।

रक्त कोशिकाएँ :- हमारे रक्त में तीन प्रकार की रक्त कोशिकाएँ होती हैं  ।

  • श्वेत रक्त कोशिका (W.B.C)

  • लाल रक्त कोशिका (R.B.C)

  • प्लेटलेट्स (पट्टीकाणु)

  1. श्वेत रक्त कोशिकाओं का कार्य :- यह हमारे शरीर में बाहरी तत्वों या संक्रमण से लड़ती है  ।

  2. लाल रक्त कोशिकाओं का कार्य :- लाल रक्त कोशिकाएँ मुख्यत: हिमोग्लोबिन की बनी होती है  । जो रक्त को लाल रंग प्रदान करता है  ।

हिमोग्लोबिन का कार्य :-

  1. रक्त को लाल रंग प्रदान करता है  ।

  2. यह ऑक्सीजन से ऊँच बंधुता रखता है और ऑक्सीजन और कार्बन डाइऑक्साइड को एक स्थान से दुसरे स्थान तक ले जाता है  ।

  1. प्लेटलैट्स का कार्य :- शरीर के किसी भाग से रक्तस्राव को रोकने के लिए प्लेटलैट्स कोशिकाए होती है जो पुरे शरीर में भम्रण करती हैं आरै रक्तस्राव के स्थान पर रुधिर का थक्का बनाकर मार्ग अवरुद्ध कर देती हैं।

प्लाज्मा :- रक्त कोशिकाओं के आलावा रक्त में एक और संयोजी उत्तक पाया जाता है जो रक्त कोशिकाओं के लिए एक तरल माध्यम प्रदान करता है जिसे प्लाज्मा कहते हैं  । 

प्लाज्मा का कार्य :- इसमें कोशिकाएं निलंबित रहती हैं  । प्लाज्मा भोजन, कार्बन डाइऑक्साइड तथा नाइट्रोजनी वर्ज्य पदार्थ का विलीन रूप से वहन करता है  ।

रक्तदाब :- रुधिर वाहिकाओं के विरुद्ध जो दाब लगता है उसे रक्तदाब कहते है  ।

रक्तदाब दो प्रकार के होते है :-

  1.  प्रकुंचन दाब :- धमनी के अन्दर रुधिर का दाब जब निलय निलय संकुचित होता है तो उसे प्रकुंचन दाब कहते हैं  ।

  2.  अनुशिथिलन दाब :- निलय अनुशिथिलन के दौरान धमनी के अन्दर जो दाब उत्पन्न होता है उसे अनुशिथिलन दाब कहते हैं

एक समान्य मनुष्य का रक्तचाप : 120mm पारा से 80mm पारा होता है  ।

रक्तचाप मापने वाला यन्त्र : स्फैग्नोमोमैनोमीटर यह रक्तदाब मापता है  ।

लसिका :- केशिकाओं की भिति में उपस्थित छिद्रों द्वारा कुछ प्लैज्मा, प्रोटीन तथा रूधिर कोशिकाएँ बाहर निकलकर उतक के अंतर्कोशिकीय अवकाश में आ जाते है तथा उतक तरल या लसीका का निर्माण करते है। यह प्लाज्मा की तरह ही एक रंगहीन तरल पदार्थ है जिसे लसिका कहते हैं  । इसे तरल उतक भी कहते हैं  ।

लसिका का बहाव शरीर में एक तरफ़ा होता है  । अर्थात नीचे से ऊपर की ओर और यह रक्त नलिकाओं में न बह कर इसका बहाव अंतरकोशिकीय अवकाश में होता है  । जहाँ से यह लसिका केशिकाओं में चला जाता है  । इस प्रकार यह एक तंत्र का निर्माण करता है जिसे लसिका तंत्र कहते है  । इस तंत्र में जहाँ सभी लसिका केशिकाएँ लसिका ग्रंथि (Lymph Node) से जुड़कर एक जंक्शन का निर्माण करती है  । लसिका ग्रंथि लसिका में उपस्थित बाह्य कारकों जो संक्रमण के लिए उत्तरदायी होते है उनकी सफाई करता है   ।  

अंतरकोशिकीय अवकाश :- दो कोशिकाओं के बीच जो रिक्त स्थान होता है उसे अंतरकोशिकीय अवकाश कहते है 

लसिका का कार्य :- 

  1. यह शरीर में प्रतिरक्षा प्रणाली को मजबूत बनता है तथा वहन में सहायता करता है   । 

  2. पचा हुआ तथा क्षुदान्त्र द्वारा अवशोषित वसा का वहन लसिका के द्वारा होता है

  3. बाह्य कोशिकीय अवकाश में इक्कठित अतिरिक्त तरल को वापस रक्त तक ले जाता है

  4. लसीका में पाए जाने वाले लिम्फोसाइट संक्रमण के विरूद्ध लडते है।

पादपों में परिवहन :- पादप शरीर के निर्माण के लिए आवश्यक कच्ची सामग्री अलग से प्राप्त की जाती है। पौधें के लिए नाइट्रोजन, फोस्फोरस तथा दूसरे खनिज लवणों के लिए मृदा निकटतम तथा प्रचुरतम स्रोत है। इसलिए इन पदार्थों का अवशोषण जड़ों द्वारा, जो मृदा के संपर्क में रहते हैं, किया जाता है। यदि मृदा के संपर्क वाले अंगों में तथा क्लोरोफिल युक्त अंगों में दूरी बहुत कम है तो ऊर्जा व कच्ची सामग्री पादप शरीर के सभी भागों में आसानी से विसरित हो सकती है। पादपों के शरीर का एक बहुत बड़ा भाग मृत कोशिकाओं का होता है इसलिए पादपों को कम उर्जा की आवश्यकता होती है तथा वे अपेक्षाकृत धीमे वहन तंत्र प्रणाली का उपयोग कर सकते है  । इसमें संवहन उत्तक जाइलम और फ्लोएम की महत्वपूर्ण भूमिका है  ।

What Are Plant Growth Promoting Bacteria?

जाइलम और फ्लोएम का कार्य :- 

जाइलम का कार्य :- यह मृदा प्राप्त जल और खनिज लवणों को पौधे के अन्य भाग जैसे पत्तियों तक पहुँचाता है  ।

फ्लोएम का कार्य :- यह पत्तियों से जहाँ प्रकाशसंश्लेषण के द्वारा बने उत्पादों को पौधे के अन्य भागों तक वहन करता है  ।

पादपों में जल का परिवहन :- 

  1. जाइलम ऊतक में जड़ों, तनों और पत्तियों की वाहिनिकाएँ तथा वाहिकाएँ आपस में जुड़कर जल संवहन वाहिकाओं का एक सतत जाल बनाती हैं जो पादप के सभी भागों से संबद्ध होता है। जड़ों की कोशिकाएँ मृदा के संपर्क में हैं तथा वे सक्रिय रूप से आयन प्राप्त करती हैं। यह जड़ और मृदा के मध्य आयन सांद्रण में एक अंतर उत्पन्न करता है। इस अंतर को समाप्त करने के लिए मृदा से जल जड़ में प्रवेश कर जाता है। इसका अर्थ है कि जल अनवरत गति से जड़ के जाइलम में जाता है और जल के स्तंभ का निर्माण करता है जो लगातार ऊपर की ओर धकेला जाता है।

  2. दूसरी ऊँचे पौधों में उपरोक्त विधि पर्याप्त नहीं है  । अत: एक अन्य विधि है जिसमें पादपों के पत्तियों के रंध्रों से जो जल की हानि होती है उससे कोशिका से जल के अणुओं का वाष्पन एक चूषण उत्पन्न करता है जो जल को जड़ों में उपस्थित जाइलम कोशिकाओं द्वारा खींचता है  । इससे जल का वहन उर्ध्व की ओर होने लगता है  ।

"अत: वाष्पोत्सर्जन से जल के अवशोषण एवं जड़ से पत्तियों तक जल तथा उसमें विलेय खनिज लवणों के उपरिमुखी गति में सहायक है" 

भोजन तथा अन्य दुसरे पदार्थों का परिवहन :- सुक्रोज सरीखे पदार्थ फ्रलोएम ऊतक में ए.टी.पी. से प्राप्त ऊर्जा से ही स्थानांतरित होते हैं। यह ऊतक का परासरण दाब बढ़ा देता है जिससे जल इसमें प्रवेश कर जाता है। यह दाब पदार्थों

को फ्लोएम से उस ऊतक तक ले जाता है जहाँ दाब कम होता है। यह फ्लोएम को पादप की आवश्यकता के अनुसार पदार्थों का स्थानांतरण कराता है। उदाहरण के लिए, बसंत में जड़ व तने के ऊतकों में डारित शर्करा का स्थानांतरण कलिकाओं में होता है जिसे वृद्धि के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है।

उत्सर्जन :- 

उत्सर्जन :- वह जैव प्रक्रम जिसमें इन हानिकारक उपापचयी वर्ज्य पदार्थों का निष्कासन होता है, उत्सर्जन कहलाता है।

अमीबा में उत्सर्जन :- एक कोशिकीय जीव अपने शरीर से अपशिष्ट पदार्थों को शरीर की सतह से जल में विसरित कर देता है  । 

बहुकोशिकीय जीवों में उत्सर्जन :- बहुकोशिकीय जीवों में उत्सर्जन की प्रक्रिया जटिल होती है, इसलिए इनमें इस कार्य को पूरा करने के लिए विशिष्ट अंग होते है  ।

मानव के उत्सर्जन :-

उत्सर्जी अंगों का नाम :- उत्सर्जन में भाग लेने वाले अंगों को उत्सर्जी अंग कहते है   । ये निम्नलिखित हैं  ।

  1. वृक्क

  2. मुत्रवाहिनी

  3. मूत्राशय

  4. मूत्रमार्ग

वृक्क :- मनुष्य में एक जोड़ी वृक्क होते हैं जो उदर में रीढ़ की हड्डी के दोनों ओर स्थित होते हैं  ।

Chronic kidney disease (CKD)

उत्सर्जन की प्रक्रिया :- वृक्क में मूत्र बनने के बाद मूत्रवाहिनी में होता हुआ मूत्रशय में आ जाता है तथा यहाँ तब तक एकत्र रहता है जब तक मूत्रमार्ग से यह निकल नहीं जाता है  ।

उत्सर्जी पदार्थ :- उत्सर्जन के उपरांत निकलने वाले अपशिष्ट पदार्थों को उत्सर्जी पदार्थ कहते है  ।

उत्सर्जी पदार्थों के नाम :

  1. नाइट्रोजनी वर्ज्य पदार्थ जैसे यूरिया

  2. यूरिक अम्ल 

  3. अमोनिया 

  4. क्रिएटिन

वृक्क का कार्य :- 

  1. यह शरीर में जल और अन्य द्रव का संतुलन बनाता है जिससे रक्तचाप नियंत्रित होता है  ।

  2. यह रक्त से खनिजों तथा लवणों को नियंत्रित और फ़िल्टर करता है  ।

  3. यह भोजन, औषधियों और विषाक्त पदार्थों से अपशिष्ट पदार्थों को छानकर बाहर निकलता है

  4. यह शरीर में अम्ल और क्षार की मात्रा को नियंत्रित करने में मदद करता है

वृक्काणु :- प्रत्येक वृक्क में निस्यन्दन एकक को विक्काणु कहते है  ।

मूत्र बनने की मात्रा का नियमन :- यह निम्नलिखित कारकों पर निर्भर करता है

  1. जल की मात्रा का पुनरवशोषण पर 

  2. शरीर में उपलब्ध अतिरिक्त जल की मात्रा पर

  3. कितना विलेय पदार्थ उत्सर्जित करना है

शरीर में निर्जलीकरण की अवस्था में वृक्क का कार्य :- शरीर में निर्जलीकरण की अवस्था में वृक्क मूत्र बनने की प्रक्रिया को कम कर देता है, यह एक विशेष प्रकार के हार्मोन के द्वारा नियंत्रित होता है  ।

वृक्क की क्रियाहीनता :- संक्रमण, अघात या वृक्क में सीमित रक्त प्रवाह आदि कारणों से कई बार वृक्क कार्य करना कम कर देता है या बंद कर देता है  । इसे ही वृक्क की क्रियाहीनता कहते है  । इससे शरीर में विषैले अपशिष्ट पदार्थ संचित होते जाते है जिससे व्यक्ति की मृत्यु भी हो सकती है  । वृक्क की इस निष्क्रिय अवस्था में कृत्रिम वृक्क का उपयोग किया जाता है जिससे नाइट्रोजनी अपशिष्टों को शरीर से निकाला जा सके

कृत्रिम वृक्क :- नाइट्रोजनी अपशिष्टों को रक्त से एक कृत्रिम युक्ति द्वारा निकालने की युक्ति को अपोहन कहते है  ।

अपोहन कैसे कार्य करता है :- कृत्रिम वृक्क बहुत सी अर्धपारगम्य अस्तर वाली नलिकाओं से युक्त होती है   । ये नलिकाएँ अपोहन द्रव से भरी टंकी में लगी होती हैं। इस द्रव क परासरण दाब रुधिर जैसा ही होता है लेकिन इसमें नाइट्रोजनी अपशिष्ट नहीं होते हैं। रोगी के रुधिर को इन नलिकाओं से प्रवाहित कराते हैं। इस मार्ग में रुधिर से अपशिष्ट उत्पाद विसरण द्वारा अपोहन द्रव में आ जाते हैं। शुद्ध किया गया रुधिर वापस रोगी के शरीर में पंपित कर दिया जाता है।

वृक्क और कृत्रिम वृक्क में अन्तर :- वृक्क में पुनरवशोषण होता है जबकि कृत्रिम वृक्क में पुनरवशोषण नहीं होता है  ।

पादपों में उत्सर्जन :- 

  • पौधे अतिरिक्त जल को वाष्पोत्सर्जन द्वारा बाहर निकल देते हैं।

  • बहुत से पादप अपशिष्ट उत्पाद कोशिकीय रिक्तिका में संचित रहते हैं।

  • पौधें से गिरने वाली पत्तियों में भी अपशिष्ट उत्पाद संचित रहते हैं।

  • अन्य अपशिष्ट उत्पाद रेजिन तथा गोंद के रूप में विशेष रूप से पुराने जाइलम में संचित रहते हैं।

  • पादप भी कुछ अपशिष्ट पदार्थों को अपने आसपास की मृदा में उत्सर्जित करते।


NCERT SOLUTIONS

प्रश्न (पृष्ठ संख्या 105)

प्रश्न 1 हमारे जैसे बहुकोशिकीय जीवों में ऑक्सीजन की आवश्यकता पूरी करने में विसरण क्यों अपर्याप्त है?

उत्तर- विसरण क्रिया द्वारा बहुकोशिकीय जीवो में पर्याप्त मात्रा में ऑक्सीजन शरीर के प्रत्येक अंग में नहीं पहुचाय जा सकती है। बहुकोशिकीय जीवो में ऑक्सीजन बहुत आवश्यक होता है। बहुकोशिकीय जीवो की संरचना अति जटिल होती है। अतः प्रत्येक अंग को ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है। जो विसरण क्रिया नहीं पूरी कर सकती है।

प्रश्न 2 कोई वस्तु सजीव है, इसका निर्धरण करने के लिए हम किस मापदंड का उपयोग करेंगे?

उत्तर- कोई वस्तु सजीव है या नहीं, इसका निर्धारण करने के लिए कई मापदंडो का उपयोग करते हैं। हम जानते है कि सजीवों में समय के अनुसार उनमें वृद्धि, प्रजन्न एवं श्वसन की क्रिया निरंतर होती है। सजीवों के शरीर के अंदर आणविक गतियाँ लगातार होती रहती हैं चाहे वह बाह्य रूप से स्थिर तथा शांत ही क्यों न हो।

प्रश्न 3 किसी जीव द्वारा किन कच्ची सामग्रियों का उपयोग किया जाता है?

उत्तर- जीवो को शारीरिक वृद्धि के लिए बाहर से अतिरिक्त कच्ची सामग्री की आवश्यकता होती है। पृथ्वी पर जीवन कार्बन अणुओं पर आधारित है। अतः यह खाद्य पदार्थ कार्बन पर निर्भर है। ये कार्बनिक यौगिक भोजन का ही अन्य रूप है। इनमे ऑक्सीजन व कार्बन डाइआक्साइड का आदान प्रदान प्रमुख है। इसके अतिरिक्त जल व खनिज लवण अन्य है। हरे-पौधे इन कच्चे पदार्थ साथ सूर्य के प्रकाश की उपस्थिति में स्टार्च का निर्माण होता है।

प्रश्न 4 जीवन के अनुरक्षण के लिए आप किन प्रक्रमों को आवश्यक मानेंगे?

उत्तर- किसी भी जीव में जीवन के अनुरक्षण के लिए ऊर्जा की अहम भूमिका होती है। इस ऊर्जा को प्रत्येक जीव अपने भोजन के माध्यम से प्राप्त करते है। भोजन से उर्जा तक निम्नलिखित प्रक्रम आवश्यक हैं:

  • पोषण

  • श्वशन

  • वहन

  • उत्सर्जन

उत्सर्जन इन सभी प्रक्रमों को सम्मिलित रूप से जैव प्रक्रम कहते हैं।

प्रश्न (पृष्ठ संख्या 111)

प्रश्न 1 स्वयंपोषी पोषण तथा विषमपोषी पोषण में क्या अंतर है?

उत्तर-



 स्वयंपोषी पोषण


विषमपोषी पोषण

1.

भोजन को सरल अकार्बनिक कच्चे माल जैसे जल और CO2 से संशलेषित किया जाता है।

1.

भोजन को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्राप्त किया जाता है  । भोजन को एंजाइम के मदद से तोड़ा जाता है।

2.

क्लोरोफिल की आवश्यकता होती है।

2.

क्लोरोफिल की कोई आवश्यकता नहीं होती।

3.

सामान्यतः भोजन का निर्माण दिन के समय होता है।

3.

भोजन का निर्माण कभी भी किया जा सकता है।

4.

सभी हरे पौधे तथा कुछ जीवाणुओं में इस प्रकार का पोषण होता है।

4.

सभी जीवों तथा कवक में यह पोषण होता है।



प्रश्न 2 प्रकाशसंश्लेषण के लिए आवश्यक कच्ची सामग्री पौधा कहाँ से प्राप्त करता है?

उत्तर- 

  • जल- पौधे की जडे भूमि से जल प्राप्त करती है।

  • कार्बन-डाइआक्साइड- पौधे इसे वायुमंडल से रंध्रो द्वारा प्राप्त करते हैं।

  • क्लोरोफिल- हरे पत्तो में क्लोरोप्लास्ट होता है, जिसमे क्लोरोफिल मौजूद होता है।

  • सूर्य का प्रकाश- सूर्य द्वारा इसे प्राप्त करते है।

प्रश्न 3 हमारे आमाशय में अम्ल की भूमिका क्या है?

उत्तर- अमाशय की भित्ति में उपस्थित जठर ग्रंथियों से हाइड्रोक्लोरिक अम्ल (HCl) उत्पन्न होता है। यह अम्लीय (acidic) माध्यम तैयार करता है जो पेप्सिन एंजाइम की क्रिया में सहायक होता है। यह भोजन को सड़ने से रोकता है। यह भोजन के साथ आए जीवाणुओं को नष्ट कर देता है। भोजन में उपस्थित कैल्शियम को कोमल बनाता है। यह पाइलोरिफ छिद्र के खुलने और बंद होने पर नियंत्रण रखता है। यह निष्क्रिय एंजाइमों को सक्रिय अवस्था में लाता है।

प्रश्न 4 पाचक एंजाइमों का क्या कार्य है?

उत्तर- पाचन एंजाइम जटिल भोजन को सरल, सूक्ष्म तथा लाभदायक पदार्थ में बदल देता है। इस प्रकार से सरल पदार्थ छोटी आंत द्वारा अवशोषित कर लिए जाते है।

प्रश्न 5 पचे हुए भोजन को अवशोषित करने के लिए क्षुद्रांत्रा को कैसे अभिकल्पित किया गया है?

उत्तर- अमाशय से पचा हुआ भोजन क्षुद्रांत्र (small intestine) में प्रवेश करता है। क्षुद्रांत्र आहारनाल का सबसे लंबा व कुंडलित भाग है। घास खाने वाले शाकाहारी का सेलूलोज पचाने के लिए लंबी क्षुद्रांत्र व मांस का पाचन सेलूलोज की अपेक्षा सरल होने के कारण बाघ की क्षुद्रांत्र छोटी होती है।

क्षुद्रांत्र के आंतरिक आस्तर पर अनेक अंगुली जैसे प्रवधर् होते हैं ये दीघर् रोम कहलाते हैं। ये अवशोषण का सतही क्षेत्रफल को बढ़ा देते हैं। इसमें रुधिर वाहिकाओं की अधिकता होती है जो भोजन को अवशोषित कर के शरीर की हर कोशिका तक पहुंचाने का काम करते है। यहां इसका उपयोग ऊर्जा प्राप्त करने, नए ऊतकों का निर्माण करने तथा पुराने ऊतकों की मरम्मत के लिए किया जाता है।

प्रश्न (पृष्ठ संख्या 116)

प्रश्न 1 श्वसन के लिए ऑक्सीजन प्राप्त करने की दिशा में एक जलीय जीव की अपेक्षा स्थलीय जीव किस तरह लाभप्रद है?

उत्तर- स्थलीय जीव वायुमंडलीय ऑक्सीजन लेते हैं, परंतु जलीय जीव जल में विलेय ऑक्सीजन का उपयोग करते हैं। जल की तुलना में वायु में ऑक्सीजन की मात्रा अधिक होती है। चूँकि वायु में ऑक्सीजन की मात्रा अधिक होती है इसलिए स्थलीय जीवों को अधिक ऑक्सीजन प्राप्त करने के लिए तेजी से साँस लेने की आवश्यकता नहीं होती है। इसलिए जलीय जंतु के विपरीत, स्थलीय जीवों को गैसीय आदान-प्रदान के लिए अनुकूलन की आवश्यकता नहीं होती है।

प्रश्न 2 ग्लूकोज़ के ऑक्सीकरण से भिन्न जीवो में ऊर्जा प्राप्त करने के विभिन्न पथ क्या हैं?

उत्तर- मासपेशियो में ग्लूकोज ऑक्सीजन कि पर्याप्त मात्रा में ऑक्सीकृत हो ऊर्जा प्रदान करता है तथा ऑक्सीजन कि कम मात्रा होने पर विशलषित होता है तथा लैकिटक अम्ल बनाता है। जीवो कि कोशिकाओ में ऑक्सीकरण पथ निम्न है।

  1. वायवीय श्वसन- इस प्रकम में ऑक्सीजन, ग्लूकोज को खंडित कर जल तथा CO2 में खंडित कर देती है। ऑक्सीजन की पयार्प्त मात्रा में ग्लूकोज विश्लेषित होकर 3 कार्बन परमाणु परिरुवेट के दो अणु निर्मित करता है।

  2. अवायवीय श्वसन- ऑक्सीजन कि अनुपस्थिति में यीस्ट में किण्वन क्रिया होती है तथा पायरूवेट इथेनाल व CO2 का निमार्ण होता है।

  3. ऑक्सीजन की कमी में लेकिटक अम्ल का निमार्ण होता है जिससे मासपेशियो में कैम्प आते है।

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प्रश्न 3 मनुष्यों में ऑक्सीजन तथा कार्बन डाइऑक्साइड का परिवहन कैसे होता है?

उत्तर- ऑक्सीजन का परिवहन- फुफ्फुस की वायु से श्वसन वर्णक ऑक्सीजन लेकर, उन ऊत्तकों तक पहुँचाते हैं जिनमें ऑक्सीजन की कमी है। मानव में श्वसन वर्णक हीमोग्लोबिन है जो लाल रूधिर कणिकाओं में उपस्थित होता है।

कार्बन डाइऑक्साइड का परिवहन- कार्बन डाइऑक्साइड जल में अधिक विलेय है, और इसलिए इसलिए यह ज्यादातर शरीर के उत्तकों से हमारे रक्त प्लाज्मा में विलेय अवस्था में फेफड़ों तक ले जाया जाता है जहाँ यह रक्त से फेफड़ों के हवा में फ़ैल जाती है और फिर नाक के द्वारा बाहर निकल दिया जाता है।

प्रश्न 4 गैसों के विनिमय के लिए मानव-फुफ्फुस में अधिकतम क्षेत्रफल को कैसे अभिकल्पित किया है?

उत्तर- फुफ्फुस के अंदर मार्ग छोटी और छोटी नलिकाओं में विभाजित हो जाता है, जो अंत में गुब्बारे जैसी रचना में अंतकृत हो जाता है, जिसे कूपिका कहते हैं। कूपिका एक सतह उपलब्ध कराती है। जिसमें गैसों का विनिमय हो सकता है। यदि कूपिकाओं की सतह को फैला दिया जाए तो यह लगभग 80 से 100 वर्ग मीटर क्षेत्र ढक लेगी। इस तरह हमारे फुफ्फुस गैसों के विनिमय के लिए अधिकतम क्षेत्रफल बनाती है।

प्रश्न (पृष्ठ संख्या 122)

प्रश्न 1 मानव में वहन तंत्र घटक कौन से है? घटकों के क्या कार्य है?

उत्तर- मानव में वहन तंत्र के निम्लिखित घटक है-

  1. रक्त- रक्त का काम शारीर के सम्पूर्ण भागों में भोजन से प्राप्त पोषकतत्वों तथा ऑक्सीजन को पहुँचाना है, यह कार्य रक्त में उपस्थित प्लाज्मा के द्वारा होता है।

  2. ह्रदय- ह्रदय के मुख्य चार कोष्टक होते है जो ऑक्सीजनित रक्त तथा विऑक्सीजनित रक्त को अलग करने में सहायक होते है। ह्रदय ऑक्सीजनित रक्त को शारीर के विभिन्न भागों में पहुचाने का कार्य करता है।

  3. नलिकाएं- धमनी वे रुधिर वाहिका है जो रुधिर को ह्रदय से शरीर के विभिन्न भागों तक ले जाने का कार्य करती है तथा शिराएँ विभिन्न अंगो से रुधिर एकत्र करके वापस ह्रदय में लाने का कार्य करती हैं।

  4. प्लेटलेट्स- प्लेटलेट्स कोशिकाएँ रक्तश्राव के स्थान पर रुधिर का थक्का बनाकर मार्ग अवरुद्ध कर देती है।

प्रश्न 2 स्तनधारी तथा पक्षियों में ऑक्सिजनित तथा विऑक्सिजनित रुधिर को अलग करना क्यों आवश्यक हैं?

उत्तर- स्तनधारी तथा पक्षियों में उच्च तापमान को बनाए रखने के लिए अपेक्षाकृत अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है। ऑक्सीजनित और विऑक्सीजनित रुधिर को हृदय के दायें और बायें भाग से आपस में मिलने से रोकना परम आवश्यक है। इस प्रकार का बंटवारा शरीर को उच्च दक्षतापूर्ण ऑक्सीजन की पूर्ति करता है।

प्रश्न 3 उच्च संगठित पादप में वहन तंत्र के घटक क्या हैं?

उत्तर- उच्च संगठित पादप में उत्तकों के संचालन के लिए दो अलग-अलग प्रकार होते हैं, जाइलम तथा फ्लोएम-

  1. जाइलम ऊतक (Xylem tissue)- जाइलम ऊतक पादप के जड़ से खनिज लवण तथा जल इसके सभी अंगों तक पहुँचाता है। जाइलम ऊतक में जड़ों, तनों और पत्तियों की वाहिनिकाएँ तथा वाहिकाएँ आपस में जुड़कर जल संवहन वाहिकाओं का एक जाल बनाती हैं, जो पादप के सभी भागों से संबद्ध होता है।

  2. फ्लोएम ऊतक (Phloem tissue)- भोजन तथा अन्य पदार्थों का संवहन (Translocation) पत्तियों से अन्य सभी अंगों तक फ्लोएम ऊतक द्वारा होता है।

प्रश्न 4 पादप में जल और खनिज लवण का वहन कैसे होता है?

उत्तर- मिट्टी से पत्तियों तक जल और खनिज लवण जाइलम कोशिकाओं के माध्यम से ले जाया जाता है। जाइलम उत्तक में जड़ों, तनों और पत्तियों की वहिनिकाएँ तथा वाहिकाएँ आपस में जुड़कर जल संवहन कोशिकाओं का एक सतत जाल बनाती है जो पादप के सभी भागों से सम्बद्ध होता है। जड़ों की कोशिकाएँ मृदा के संपर्क में हैं, तथा वे सक्रिय रूप से आयन प्राप्त करती है। यह जड़ और मृदा के मध्य आयन सांद्रण में एक अंतर उत्पन्न करता है। इस अंतर को समाप्त करने के लिए मृदा से जल जड़ में प्रवेश कर जाता है। इसका अर्थ है कि जल अनवरत गति से जड़ के जाइलम में जाता है और जल केव स्तम्भ का निर्माण करता है जो लगातार ऊपर की ओर धकेला जाता है। पादप के वायवीय भागों द्वारा वाष्प के रूप में जल की हानि वाष्पोत्सर्जन कहलाती है। अतः वाष्पोत्सर्जन, जल के अवशोषण एवं जड़ से पत्तियों तथा उसमें विलेय खनिज लवणों के उपरिमुखी गति में सहायक है। जल के वहन में मूल दाब रात्रि के समय विशेष रूप से प्रभावी है जबकि दिन के समय वाष्पोत्सर्जन कर्षण, जाइलम में जल की गति के लिए मुख्य प्रेरक बल होता है।

प्रश्न 5 पादप में भोजन का स्थानान्तरण कैसे होता है?

उत्तर- किसी भी पादप में भोजन का स्थानांतरण फ्लोएम उत्तक द्वारा होता है। फ्लोएम उत्तक की कोशिका पादपों के सम्पूर्ण भागों तक फैली होती है, इसका कम पत्तियों द्वारा बनाये गए भोजन को पादपों के समस्त भागों तक पहुचना होता है। इसके अलावांफ्लोएम अमीनोअम्ल तथा अन्य पदार्थो का भी परिवहन करता है। भोजन तथा अन्य पदार्थो का स्थानांतरण संलग्न साथी कोशिका की सहायता से चलनी नलिका में उपरिमुखी तथा अधोमुखी दिशाओं में होता है, इसमें उर्जा का भी प्रयोग होता है जो उत्तक का परासरणदाब बढ़ा देता है। जिससे जल इसमें प्रवेश कर जाता है। और यह दाब पदार्थो को फ्लोएम से उस उत्तक तक ले जाता है जहा दाब कम हो जाता है।

प्रश्न (पृष्ठ संख्या 124)

प्रश्न 1 वृक्काणु (नेफ्रॉन) की रचना तथा क्रियाविधि का वर्णन कीजिए।

उत्तर- संरचना (Structure)- मानव शरीर में दो वृक्क होते हैं। प्रत्येक वृक्क नेफ्रॉन की अनेक इकाइयों से बना होता है। वृक्काणु (नेफॉन) वृक्क की क्रियात्मक इकाई होती है। नेफॉन में कप के आकार का बोमन संपुट (Bowman’s Capsule) होता है, जिसमें कोशिका गुच्छ (Glomerulus) होते हैं। यह रुधिर कोशिकाओं का एक गुच्छ होता है जो एफेरेन्ट कोशिकाओं द्वारा बने होते हैं। एफेरेन्ट धमनियाँ अशुद्ध रक्त नेफ्रॉन तक लाते हैं। कप के आकार का बोमन संपुट वृक्काणु के निलिकाकार भाग (Tubular part of rephron) का निर्माण करती है। जो संग्राहक वाहिनी (collecting duct) से जुड़ा होता है।

क्रियाविधि (Working)- वृक्क धमनी (Renal artery) ऑक्सीजनित रुधिर लाती है, जिसमें नाइट्रोजनी वर्त्य होते हैं। मूत्र बोमन संपुट में स्थित कोशिका गुच्छ (ग्लामेरूलस) में फिल्टर होकर कुंडली के आकार में नेफ्रॉन के नलिकाकार भाग में पहुँचता है। मूत्र में कुछ उपयोगी पदार्थ; जैसे-ग्लूकोज, अमीनों अम्ल, लवण तथा जले रह जाते हैं जो पुनः इस नलिकाकार भाग में अवशोषित कर लिए जाते हैं। इसके बाद मूत्र संग्राहक वाहिनी में एकत्र हो जाती है तथा मूत्रवाहिनी; में प्रवेश करता है जहाँ से मूत्राशय में चली जाती है। अतः प्रत्येक वृक्क में बनने वाला मूत्र एक लंबी नलिका, मूत्रवाहिनी में प्रवेश करता है, जो वृक्क को मूत्राशय से जोड़ती है।

प्रश्न 2 उत्सर्जी उत्पाद से छुटकारा पाने के लिए पादप किन विधियों का उपयोग करते हैं?

उत्तर- पादप उत्सृजन के लिए जंतुओं से बिलकुल भिन्न युक्तियाँ प्रयुक्त करते हैं-

  1. पौधे कुछ पदार्थों को व्यर्थ के रूप में आस-पास की मृदा में उत्सर्जित कर देते हैं।

  2. रात के समय पौधों के लिए O2 एक व्यर्थ पदार्थ नहीं है, जबकि CO2 एक व्यर्थ पदार्थ है।

  3. व्यर्थ पदार्थों गोंद तथा रेजिन के रूप में पुराने जाइलम ऊतक में एकत्रित हो जाते हैं।

  4. अनेक पादप व्यर्थ पदार्थ कोशिकाओं में रिक्तिकाओं में संचित हो जाते हैं। व्यर्थ पदार्थ पत्तों में भी एकत्रित हो जाते तो फिर गिर जाते हैं।

  5. यहाँ तक कि पौधे फालतू पानी को वाष्पोतसर्जन द्वारा वायु में छोड़ देते हैं।

  6. दिन के समय पौधों की कोशिकाओं में श्वसन कारण उतपन्न CO2 एक व्यर्थ पदार्थ नहीं है, क्योंकि इसे प्रकाश संश्लेषण के लिए प्रयुक्त कर लिया जाता है। दिन के समय अत्यधिक मात्रा में O2 उत्पादित होती है, जो उसके स्वयं के लिए एक व्यर्थ पदार्थ होता है। उसे वायुमंडल में मुक्त कर दिया जाता है।

प्रश्न 3 मूत्र बनने की मात्रा का नियमन किस प्रकार होता है?

उत्तर- मूत्र बनने की मात्रा शरीर में मौजूद अतिरिक्त जल और विलेय वर्ज्य की मात्रा पर निर्भर करता है। कुछ अन्य कारक जैसे जीवों के आवास तथा हार्मोन जैसे एंटी मूत्रवर्धक हार्मोन (ADH) भी मूत्र की मात्रा को नियंत्रित करता है।

अभ्यास प्रश्न (पृष्ठ संख्या 125)

प्रश्न 1 मनुष्य में वृक्क एक तंत्र का भाग है जो संबंधित है-

  1. पोषण।

  2. श्वसन।

  3. उत्सर्जन।

  4. परिवहन।

उत्तर- 

  1. उत्सर्जन।

प्रश्न 2 पादप में जाइलम उत्तरदायी है-

  1. जल का वहन।

  2. भोजन का वहन।

  3. अमीनो अम्ल का वहन।

  4. ऑक्सीजन का वहन।

उत्तर-

  1. जल का वहन।

प्रश्न 3 स्वपोषी पोषण के लिए आवश्य्क-

  1. कार्बन डाइऑक्साइड तथा जल।

  2. क्लोरोपिफल।

  3. सूर्य का प्रकाश।

  4. उपरोक्त सभी।

उत्तर- 

  1. उपरोक्त सभी।

प्रश्न 4 पायरुवेट के विखंडन से यह कार्बन डाइऑक्साइड, जल तथा ऊर्जा देता है और यह क्रिया होती है-

  1. कोशिकाद्रव्य।

  2. माइटोकॉन्ड्रिया।

  3. हरित लवक।

  4. केद्रक।

उत्तर-

  1. माइटोकॉन्ड्रिया।

प्रश्न 5 हमारे शरीर में वसा का पाचन कैसे होता है? यह प्रक्रम कहाँ होता है?

उत्तर- 

  1. वसा का पाचन छोटी आँत में होता है।

  2. क्षुद्रांत में वसा बड़ी गोलिकाओं के रूप में होता है, जिससे उस पर एंजाइम का कार्य करना मुश्किल हो जाता है।

  3. लीवर द्वारा स्रावित पित्त लवण उन्हें छोटी गोलिकाओं में खंडित कर देता है, जिससे एंजाइम की क्रियाशीलता बढ़ जाती है। यह इमल्सीकृत क्रिया कहलाती है।

  4. पित्त रस अम्लीय माध्यम को क्षारीय बनाता है, ताकि अग्न्याशय से स्रावित लाइपेज एंजाइम क्रियाशील हो सके।

  5. लाइपेज एंजाइम वसा को वसा अम्ल तथा ग्लिसरॉल में परिवर्तित कर देता है।

  6. पाचित वसा अंत में आंत्र की भित्रि अवशोषित कर लेती है।

प्रश्न 6 भोजन के पाचन में लार की क्या भूमिका है?

उत्तर- भोजन के पाचन में लार की अति महत्त्वपूर्ण भूमिका है। लार एक रस है जो तीन जोड़ी लाल ग्रंथियों से मुँह में उत्पन्न होता है। लार में एमिलेस नामक एक एंजाइम होता है जो मंड जटिल अणु को लार के साथ पूरी तरह मिला देता है। लार के प्रमुख कार्य हैं।

  • यह भोजन के स्वाद को बढ़ाती है।

  • इसमें विद्यमान टायलिन नामक एंजाइम स्टार्च का पाचन कर उसे माल्टोज़ में बदल देता है।

  • यह भोजन को चिकना एवं मुलायम बनाती है।

  • यह भोजन को पचाने में भी मदद करती है।

  • यह मुख के खोल को साफ़ रखती है।

  • यह मुख खोल में चिकनाई पैदा करती है, जिससे चबाते समय रगड़ कम होती है।

प्रश्न 7 स्वपोषी पोषण के लिए आवश्यक परिस्थितियाँ कौन सी हैं और उसके उपोत्पाद क्या हैं?

उत्तर- स्वपोषी जीव की कार्बन तथा ऊर्जा की आवश्यकताएँ प्रकाश संश्लेषण द्वारा पूरी होती है। स्वपोषी पोषण के लिए कार्बन डाइऑक्साइड, जल, क्लोरोफिल तथा सूर्य का प्रकाश आवश्यक तत्व हैं। कार्बोहाइड्रेट पौधों को ऊर्जा प्रदान करने में प्रयुक्त होते हैं।

प्रश्न 8 वायवीय तथा अवायवीय श्वसन में क्या अंतर हैं? कुछ जीवो के नाम लिखिए जिनमे अवायवीय श्वसन होता है।

उत्तर-

वायवीय

अवायवीय

वायवीय क्रिया ऑक्सीजन की उपस्थिति में होती है।

अवायवीय क्रिया ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में होती है।

यह क्रिया कोशिका के जीव द्रव्य एवं माइटोकॉड्रिया दोनों में पूर्ण होती है।

यह क्रिया केवल जीव द्रव्य में ही पूर्ण होती है।

इस क्रिया में ग्लूकोज का पूर्ण ऑक्सीकरण होता है।

इस क्रिया में ग्लूकोज़ का अपूर्ण ऑक्सीकरण होता है।

इस क्रिया से CO2, एवं H2O बनता है।

इस क्रिया में एल्कोहल एवं CO2 बनती है।

इस क्रिया में ग्लूकोज़ के एक अणु में 38 ATP अणु मुक्त होते हैं।

इस क्रिया में ग्लूकोज के एक अणु में 2 ATP अणु मुक्त होते हैं।

ग्लूकोज़ के एक अणु के पूर्ण ऑक्सीकरण से 673 किलो कैलोरी ऊर्जा मुक्त होती है।

ग्लूकोज के अणु के अपूर्ण ऑक्सीकरण से 21 किलो कैलोरी ऊर्जा मुक्त होती है।

कुछ जीवों में अवायवीय श्वसन होता है, जैसे यीस्ट,फीताकृमि।

प्रश्न 9 गैसों के अधिकतम विनिमय के लिए कूपिकाएँ किस प्रकार अभिकल्पित हैं?

उत्तर- कूपिका एक सतह उपलब्ध कराती है, जिससे गैसों का विनिमय हो सके। कूपिकाओं की भित्ति में रुधिर वाहिकाओं का विस्तीर्ण जाल होता है, जो वायु से ऑक्सीजन लेकर हमारे शरीर की सभी कोशिकाओं तक पहुँचाता है तथा रुधिर में विलेय Co2 को कूपिकाओं में छोड़ने के लिए लाता है ताकि CO2 हमारे शरीर से बाहर निकल जाए।

प्रश्न 10 हमारे शरीर में हीमोग्लोबिन की कमी के क्या परिणाम हो सकते हैं?

उत्तर- हीमोग्लोबिन हमारे शरीर में ऑक्सीजन का वहन करता है। लाल रक्त कण में यदि इनकी मात्रा कम हो जाती है तो शरीर के अंगो को सुचारू रूप से ऑक्सीजन नहीं मिल पता है। जिससे भोजन का ऑक्सीकरण पूर्णतः नहीं हो पाता, जिससे ऊर्जा में भी कमी आती है और थकावट उत्पन्न होती है। इसकी कमी से व्यक्ति एनीमिया से पीड़ित हो जाता है।

प्रश्न 11 मनुष्य में दोहरा परिसंचरण की व्याख्या कीजिए। यह क्यों आवश्यक है?

उत्तर- दोहरा परिसंचरण- विऑक्सिजनित रक्त शरीर के विभिन्न भागों से महाशिराओं द्वारा दाएँ अलिंद में इकट्ठा किया जाता है। जब दायाँ अलिंद सिकुड़ता है तो यह दाएँ निलय में चला जाता है। जब दायाँ निलय सिकुड़ता है तो यह विऑक्सिजनित रक्त फुफ्फुस धमनी के माध्यम से फुस्फुस (फेफड़ों) में चला जाता है, जहाँ पर गैसों का विनिमय होता है। यह रक्त ऑक्सिजनित होकर फुफ्फुस शिराओं के द्वारा वापिस ह्दय में बाएँ अलिंद में आ जाता है। जब बायाँ अलिंद सिकुड़ता है, तो यह ऑक्सिजनित रक्त बाएँ निलय में आता है। जब बायाँ निलय सिकुड़ता है तो यह रक्त शरीर के विभिन्न भागों में महाधमनी के माध्यम से वितरित किया जाता है।

प्रश्न 12 जाइलम तथा फ्लोएम में पदार्थों के वहन में क्या अंतर है?

उत्तर- 

जाइलम

फ्लोएम

जाइलम मृदा से प्राप्त जल और खनिज लवणों को वहन करता है।

फ्लोएम उत्तक भोजन के परिवहन में मदद करता है। 

जल को पौधों के जड़ों से अन्य भागों तक ले जाता है।

भोजन को ऊपर और नीचे दोनों दिशाओं में ले जाया जाता है।

जाइलेम में पदार्थों का वहन सरल भौतिक दबावों की सहायता से होता है, जैसे वाष्पोत्सर्जन।

फ्लोएम में भोजन का वहन एटीपी से प्राप्त ऊर्जा के द्वारा से होता है।

प्रश्न 13 फुफ्फुस में कूपिकाओं की तथा वृक्क में वृक्काणु (नेफ्रान) की रचना तथा क्रियाविधि की तुलना कीजिए।

उत्तर-



कूपिकाएँ

वृक्काणु

रचना

फुफ्फुस के अंदर स्थित छोटी नलिकाएँ होती है जो गुब्बारे जैसी रचना में अंतकृत होती है जिसे कूपिका कहते हैं।

वृक्काणु गुर्दे के अंदर स्थित नली जैसी संरचना में मौजूद होती है।

 

कूपिकाओं की भित्ति में रुधिर वाहिकाओं का विस्तीर्ण जाल होता है।

यह केशिका गुच्छा, बोमन संपुट तथा एक लंबी नलिका से बनी होती है।

क्रियाविधि

रुधिर शेष शरीर से कार्बन डाइऑक्साइड कूपिकाओं में छोड़ने के लिए लाता है, तथा वायु से ऑक्सीजन लेकर शरीर की सभी कोशिकाओं तक पहुँचाता है।

रक्त गुर्दे की धमनी द्वारा गुर्दे में प्रवेश करती है। यहाँ रुधिर प्रवेश करता है जबकि नाइट्रोजनी वर्ज्य पदार्थ जैसे यूरिया या यूरिक अम्ल अलग कर लिए जाते हैं। 

 

कूपिकाएँ एक सतह उपलब्ध कराती है जिससे गैसों का विनिमय हो सकता है।

वृक्काणु मूल निस्पंदन इकाई है।



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