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मङ्गलम्
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उपनिषदः वैदिकवाङ्मयस्य अन्तिमे भागे दर्शनशास्त्रस्य सिद्धान्तान् प्रकटयन्ति। सर्वत्र परमपुरुषस्य परमात्मनः महिमा प्रधानतया गीयते। तेन परमात्मना जगत् व्याप्तम् अनुशासितं च अस्ति। स एव सर्वेषां तपसां परमं लक्ष्यम्। अस्मिन् पाठे परमात्मपरा उपनिषदां पद्यात्मकाः पंच मंत्राः संकलिताः सन्ति।
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संस्कृत शब्द
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पद विन्यास
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हिन्दी अर्थ
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वैदिकवाङ्मयस्य षष्ठी ,एकवचन वैदिक साहित्य के
अन्तिमे भागे सप्तमी, विशेषण विशेष्य अंतिम भाग में
दर्शनशास्त्रस्य षष्ठी ,एकवचन दर्शन शास्त्र के
प्रकटयन्ति धातु, लट्, बहुवचन प्रकट करते हैं
सर्वत्र अव्यय सब जगह
परमपुरुषस्य परमात्मनः षष्ठी विशेषण विशेष्य)
परम पुरूष परमात्मा की
प्रधानतया तृतीया प्रधानता से
तेन परमात्मना तृतीया विशेषण विशेष्य उस परमात्मा के द्वारा
स तत् , प्रथमा एकवचन वह
एव अव्यय ही
च अव्यय और
सर्वेषां तपसां तत् षष्ठी , बहुवचन सभी तपस्याओं
परमं लक्ष्यम् द्वितीया एकवचन अंतिम लक्ष्य
अस्मिन् पाठे सप्तमी, विशेषण विशेष्य इस पाठ में
मंत्राः संकलिताः प्रथमा बहुवचन मंत्र संकलित हुआ
सन्ति अस् धातु, लट्, बहुवचन हैं
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पाठ परिचय:-
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उपनिषद वैदिक साहित्य के अंतिम भाग में दर्शन शास्त्र के सिद्धांतों को प्रकट करते हैं। सभी जगह परम पुरूष परमात्मा की महिमा प्रधानता से गाया गया है। उसी परमात्मा के द्वारा संसार निर्मित और नियमित है। सभी तपस्याओं का अंतिम लक्ष्य वहीं है। इस पाठ में परमात्मा की प्राप्ति हेतु उपनिषद के पाँच मंत्र श्लोक के रूप में संकलित हैं।
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☘ श्लोक 01☘
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हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्य अपिहितं मुखम् ।
तत् त्वम् पूषन् अपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये ।।
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श्लोक परिचय:-
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यह ईशोपनिषद् की पन्द्रहवीं श्रुति/मंत्र बृहदारण्यकोपनिषद् के अध्याय 5 ब्राह्मण 15 मंत्र 1 में है और शुक्लयजुर्वेद अध्याय 40 मंत्र 17 में भी है ।
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ईशावास्य उपनिषद :- (परिचय)
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यजुर्वेद मुख्यत: दो भागों में विभक्त हैं कृष्ण यजुर्वेद जो दक्षिण भारत में प्रसिद्ध रहा जबकि शुक्ल यजुर्वेद उतर भारत में महत्वपूर्ण हैं। शुक्ल यजुर्वेद के अंतिम 40 वें अध्याय के प्रथम श्लोक से 18 वें श्लोक तक को ही ईशावास्य उपनिषद कहते हैं क्योकि अन्य सभी उपनिषदों कि उत्पति वेदों की रचना के उपरांत हुई हैं लेकिन ईशावास्य उपनिषद की रचना वेदों में ही हो गयी इसलिए इसे ही सबसे पहला उपनिषद मानते हैं । ईशावास्य में कुल 18 श्लोक हैं। विश्वविख्यात गायत्री मंत्र (३६.३) तथा महा मृत्युंजय मंत्र (३.६०) इसमें है।
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श्लोक स्त्रोत:- 01
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हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्य अपिहितं मुखम् ।तत् त्वम् पूषन् अपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये ॥१५॥
✔ CLICK & READ PAGE 12 ईशावास्य उपनिषद 15
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अन्वय
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(पूषन्) हे सब आश्रितों का भरण-पोषण करने वाले सूर्य (हिरण्मयेन) ज्योतिर्मय (पात्रेण) पात्र से (सत्यस्य) सत्यस्वरूप का ( मुखम् ) श्रीमुखारविन्द ( अपिहितम् ) ढका हुआ है (सत्यधर्माय) सत्य परब्रह्म के उपासक मेरे लिये, मुझ सत्यधर्मा के लिये (दृष्टये) अपना दर्शन कराने के निमित्त,अपना दर्शन कराने के लिये ( त्वम् ) तुम (तत्) उस को (अपावृणु) आवरण रहित कर दे।
अर्थ- हे प्रभु ! सत्य का मुख सोने जैसा आवरण से ढ़का हुआ है, सत्य धर्म की प्राप्ति के लिए उस आवरण को हटा दें ।।
व्याख्या- प्रस्तुत श्लोक ‘ईशावास्य उपनिषद्‘ से संकलित तथा मङ्गलम पाठ से उद्धृत है। इसमें सत्य के विषय में कहा गया है कि सांसारिक मोह-माया के कारण विद्वान भी उस सत्य की प्राप्ति नहीं कर पाते हैं, क्योंकि सांसारिक चकाचैंध में वह सत्य इस प्रकार ढ़क जाता है कि मनुष्य जीवन भर अनावश्यक भटकता रहता है। इसलिए ईश्वर से प्रार्थना की गई है कि हे प्रभु ! उस माया से मन को हटा दो ताकि परमपिता परमेश्वर को प्राप्त कर सके।
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श्लोक स्त्रोत:- 02
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हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम् । तत्त्वं पूषन्त्र अपावृणुसत्यधर्माय दृष्टये ।
पूषन्न एकर्षे यम सूर्य प्राजापत्यव्यूह रश्मीन् । समूह तेजो यत्ते रूपं कल्याणतमं तत्ते पश्यामि ।
योऽसावसौ पुरुषः सोऽहमस्मि । वायुरनिलममृतमथेदंभस्मान्तः शरीरम् ।
ॐ३ क्रतो स्मर कृत स्मर क्रतो स्मरकृत स्मर । अग्ने नय सुपथा रायेऽस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान् ।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम ॥ १॥
✔CLICK & READ PAGE 255 बृहदारण्यकोपनिषद् (अध्याय 5 ब्राह्मण 15 मंत्र 1 )
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श्लोक स्त्रोत:- 03
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हि॒र॒ण्मये॑न॒। पात्रे॑ण। स॒त्यस्य॑। अपि॑हित॒मित्यपि॑ऽहितम्। मुख॑म् ॥ यः। अ॒सौ। आ॒दि॒त्ये। पुरु॑षः। सः। अ॒सौ। अ॒हम्। ओ३म्। खम्। ब्रह्म॑ ॥१७ ॥
अंतिम पाँचवे पृष्ठ पर देखे ✔ शुक्लयजुर्वेद (अध्याय 40 मंत्र 17)
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